लाल फीताशाही को खत्‍म कर सकता है सरकार का नया और क्रांतिकारी फैसला

अब आप बिना आइएएस के लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा पास किए भी वरिष्ठ प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति पा सकते हैं। शर्त बस यह है कि आपके पास निजी क्षेत्र में काम करने की विशेषज्ञता हो और उम्र 40 साल से ज्यादा न हो। भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग ने इसके लिए विज्ञापन निकाला है। भारत में बीसवीं सदी का आखिरी दशक उदारीकरण के नाम पर नीतिगत सुधारों के थोक फैसलों का था। दिलचस्प यह रहा कि लाल फीताशाही को विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा माना गया। नतीजतन उसकी भूमिका और हस्तक्षेप को कम करने के लिए ‘सिंगल क्लीयरेंस’, ‘वन टाइम क्लीयरेंस’ या ‘सिंगल विंडो’ सिस्टम जैसे जुमलों से बयां होने वाले फैसले लिए गए। हर तरफ सरकारी कामकाज की प्रक्रियागत जटिलता दूर करने के हर संभव यत्न हुए। ये प्रयास अब भी कम नहीं हुए हैं। केंद्र में आई सरकारों की सीख पर इन दिनों राज्य सरकारों की तरफ से इस तरह के प्रयास न सिर्फ हो रहे हैं, बल्कि वे इसका इश्तेहार देकर वाहवाही भी लूट रही हैं, पर इन तमाम सुधारों के बीच नौकरशाही के ब्रिटिश मॉडल के साथ कोई बड़ा छेड़छाड़ नहीं हुआ। ऐसा भी नहीं कि इस दिशा में बिल्कुल सोचा भी नहीं गया।

लेटरल एंट्री का प्रस्ताव
नौकरशाही में लेटरल एंट्री का पहला प्रस्ताव 2005 में आया था, जब प्रशासनिक सुधार पर पहली रिपोर्ट आई थी, लेकिन तब इसे माना नहीं गया। फिर 2010 में दूसरी प्रशासनिक सुधार रिपोर्ट में भी इसकी अनुशंसा की गई। इस दिशा में पहली गंभीर पहल 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हुई। मोदी सरकार ने 2016 में इसकी संभावना तलाशने के लिए एक कमेटी बनाई, जिसने अपनी रिपोर्ट में इस प्रस्ताव पर आगे बढ़ने की सिफारिश की। सिफारिश के बावजूद सरकारी स्तर पर कुछ दुविधाएं और सवाल बने रहे। आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्तक्षेप के बाद मूल प्रस्ताव में आंशिक बदलाव कर इसे लागू कर दिया गया। हालांकि पहले प्रस्ताव के अनुसार सचिव स्तर के पद पर भी लेटरल एंट्री की अनुशंसा की गई थी, लेकिन वरिष्ठ नौकरशाहों के विरोध के कारण फिलहाल संयुक्त सचिव के पद पर ही इसकी पहल की गई है। इस तरह देखें तो प्रशासनिक सुधारों की जिन सिफारिशों को मनमोहन सरकार ने मंजूरी नहीं दी, उन्हें मोदी सरकार ने मंजूरी दे दी है।
 
रेड टैप’ को ‘रेड कारपेट
इससे यह समझ में आता है कि देश अब भी उसी राह पर है, जिसमें बची-खुची वे सारी बेड़ियां एक-एक करके टूट रही हैं, जिससे विदेशी पूंजी निवेश, नई औद्योगिक स्थापना या किसी नवाचारी मॉडल को आजमाने में कहीं कोई बाधा न रहे। वैसे भी ‘रेड टैप’ को ‘रेड कारपेट’ में बदलने की बात प्रधानमंत्री मोदी काफी चाव से विभिन्न मंचों से कहते रहे हैं और इसे ही वे ‘सुशासन’ बताते हैं। इसमें कहीं कोई शक नहीं कि मोदी सरकार ने नौकरशाही में प्रवेश पाने को लेकर औपचारिक बदलावों के इतिहास में एक बड़ा फैसला लिया है। इससे काम करने के तरीके के साथ उस पेशेवराना अंदाज को बढ़ावा मिलेगा, जिसके कारण सरकारी कामकाज के लचर तरीके पर निजी उद्यम और उत्पादकता भारी पड़ती रही है। आखिर इसी तर्क से तो देश में उदारीकरण या निजीकरण की राह खुली भी थी। अब अगर बड़े अधिकारी बनने के लिए यूपीएससी की सिविल सर्विस परीक्षा पास करना जरूरी नहीं है तो इसका मतलब योग्यता में ढील नहीं, बल्कि योग्यता की शर्तो को ज्यादा प्रोफेशनल दरकार के साथ तय करना है।

बड़ी जिम्मेदारियां
प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने 10 विभागों में बतौर संयुक्त सचिव के 10 पदों पर लेटरल एंट्री से जुड़ी अधिसूचना पर कहा भी है कि ‘यह उपलब्ध स्नोतों में से सर्वश्रेष्ठ को चुनने का एक प्रयत्न है। इसके पीछे प्रेरणा यह है कि यह हर भारतीय नागरिक को अपनी प्रतिभा और क्षमता के हिसाब से अपना विकास सुनिश्चित करने के लिए मौका देता है।’ रही बात फैसले को लेकर समर्थन और विरोध की तो यह समझ लेना चाहिए कि सरकार ने नीतिगत रूप से एक बड़ा फैसला जरूर लिया है, पर जहां तक रही नियुक्ति की बात तो इस तरह नियुक्तियां पहले भी होती रही हैं। आइएएस कैडर से बाहर के योग्य लोगों को न सिर्फ अभी, बल्कि पहले की सरकारों ने भी अहम जिम्मेदारियां सौंपी हैं। मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह आहलूवालिया, विजय एल केलकर, नंदन नीलेकणी से लेकर लवराज कुमार तक ऐसे कई लोग हुए हैं, जिन्हें सरकारों ने समय-समय पर उनकी योग्यता, क्षमता और अनुभव को देखते हुए बड़ी जिम्मेदारियां सौंपी हैं।

 
सरकार के फैसले पर प्रतिक्रिया
कमाल की बात यह भी कि इनमें से अधिकतर ने अपनी विशेषज्ञता की न सिर्फ छाप छोड़ी है, बल्कि वे सरकार के कई बड़े फैसलों के पीछे भी रहे हैं। जहां तक सवाल है सरकार के फैसले पर सियासी जमातों की प्रतिक्रिया की तो उसमें कुछ ऐसे सवाल जरूर उठाए गए हैं, जिन्हें सिरे से नकारा नहीं जा सकता। इसमें पहला सवाल तो यही है कि एक तरफ जब देश में आज भी व्यवस्था में सामाजिक हिस्सेदारी के लिए लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, उसमें सरकार लोगों के सामने व्यवस्था और विकास का कौन सा मॉडल रखना चाह रही है। निजी क्षेत्रों से लेकर सेना और न्याय व्यवस्था में आरक्षण की मांग के पीछे चाहे जो भी शक्तियां रही हों, पर इस बात से कौन इन्कार कर सकता है कि देश की सत्ता और व्यवस्था में देश की सामाजिक विविधता का समावेश आज भी एक बड़ा सवाल है।

देश में सुधार के एजेंडे
अच्छी बात यह है कि अशोक खेमका से लेकर अरविंद पानगड़िया तक कई बड़े और चर्चित नौकरशाहों ने सरकार के फैसले को बेस्ट टैलेंट को बड़े अवसर की सार्थकता के तौर पर देखा है। आगे अब सरकार की बारी है कि वह संयुक्त सचिवों के पद पर किस तरह की नियुक्तियां करती है। एक सवाल यह भी है कि सरकारी व्यवस्था के शीर्ष पदों पर नियुक्तियों में सामाजिक न्याय भी कोई कसौटी होनी चाहिए या नहीं। यह भी कि सामाजिक स्थिति और श्रेष्ठ योग्यता के बीच की खाई को पूरी तरह पाटे बगैर कोई भी सरकार देश में सुधार के आर्थिक या विकासवादी एजेंडे पर भले ही अपने को सफल मान ले, पर इससे सर्व-समावेशी विकास की खड़ी हुई ग्लोबल कसौटी पर तो खरा नहीं ही उतरा जा सकता है।

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