किसान परिवार में जन्मे डीके शिवकुमार ऐसे बने करोड़ों के मालिक, फिल्मी है कहानी

डोडाहल्ली काम्पेगौडा शिवकुमार उर्फ डीके शिवकुमार को बेंगलुरु से लेकर दिल्ली तक सभी डीके के नाम से पहचानते हैं. डीके का नाम जितना

फिल्मी लगता है उतनी ही का फिल्मी उनका राजनीतिक करियर है.
जब भी वह ऊंचाईयों की तरफ बढ़ते है कोई न कोई विवाद उनके नाम से जुड़ जाता है. इस बार राज्यसभा चुनाव से पहले गुजरात के कांग्रेस विधायकों को अपने पास रखने और उसके साथ इनकम टैक्स विवाद के बाद डीके का नाम सबकी जुबान पर है. कांग्रेस ने तो सोशल मीडिया पर #supportdks हैशटैग भी शुरू कर दिया है.

किसान परिवार में हुआ जन्म
डीके कांग्रेस के एक कद्दावर नेता हैं पर हिंदी पट्टी के बहुत कम लोगों को दक्षिण भारत के इस नेता का इतिहास पता होगा. बेंगलुरु से महज 35 किलोमीटर मैसूर के करीब कनकपुरा के अल्हाली गांव मे 15 मई 1962 को जन्मे डीके बचपन से ही जिद्दी और गुस्सैल रहे. यही उनकी खासियत भी बनी. डीके से छोटे एक भाई सुरेश और एक बहन भी है. किसान परिवार में जन्मे डीके को राजनीति विरासत में नहीं मिली थी, उनके पिता इलाके में सोशल वर्क किया करते थे.

कॉलेज के दिनों में डीके बेंगलुरु के आरसी कॉलेज में तेज तर्रार छात्रनेता के तौर पर छा गए और जल्द ही यूथ कांग्रेस के प्रदेश सचिव पद तक पहुंच गये. उन पर इलाके के कद्दावर वोक्कालिगा नेता एसएम कृष्णा की नजर पड़ी तो उनके दिन बदल गए. कृष्णा ने ही डीके को राजनीति में आगे बढ़ाया. आज कृष्णा के बाद डीके कर्नाटक की राजनीति में ओबीसी वोक्कालिगा समुदाय के सबसे पॉवरफुल नेता हैं. कृष्णा पिछले दिनों बीजेपी में शामिल हो गए हैं.

एचडी देवेगौड़ा के खिलाफ लड़ा पहला चुनाव

डीके ने अपना पहला चुनाव महज 25 की उम्र में तब के सबसे बड़े गौड़ा नेता और बाद मे देश के प्रधानमंत्री बने एचडी देवेगौड़ा के खिलाफ लड़ा था. इस चुनाव में डीके हार गए थे लेकिन लोग उनको पहचानने लगे थे. पांच साल बाद 1989 में उन्हें कनकपुरा के पास ही सतनूर से टिकट मिला. वह जीते भी और सबसे कम उम्र के मंत्री भी बने. यहीं से डीके ने अपनी किस्मत और हैसियत दोनों को बदलने का तरीका सीख लिया.

उनकी दोस्ती जनता दल एस के नेताओं और मशहूर रेड्डी ब्रदर्स के साथ हुई. उन्होंने माइनिंग और कंस्ट्रक्शन में कई जगह पार्टनरशिप की और खूब पैसा कमाया. स्कूल, कॉलेज और शक्कर कारखानों तक डीके ने हर जगह सफलता पाई. साल 2008 के चुनाव में डीके ने जब अपनी संपत्ति 175 करोड़ रुपये घोषित की तब वह चर्चा में आए. उस साल वह सबसे धनी उम्मीदवार थे.
विलासराव से दोस्ती का मिला फायदा
साल 2003 में जब विलासराव देशमुख को प्रभारी बनाकर कर्नाटक भेजा गया, इसका डीके को काफी फायदा मिला. इस चुनाव में कांग्रेस के पास बहुमत नहीं था. विलासराव तब एक फाईव स्टार होटल में बैठकर इंतजार कर रहे थे कि कोई रास्ता निकल जाए तभी डीके ने देवगौड़ा के बेटे से डील करा दी और धर्म सिंह को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बनवा दिया. इसके बाद विलासराव देशमुख के माध्यम से वह अहमद पटेल और सोनिया गांधी के संपर्क में आए.
डीके तब से ही कांग्रेस के लिए काम के आदमी बन गये. महाराष्ट्र में एक बार जब विलासराव देशमुख की सरकार गिरते-गिरते बची तो सारे कांग्रेसी विधायकों को बेंगलुरु ले जाया गया था. यहां डीके ने सभी को रुकवाने में मदद की थी. डीके दिल्ली के काम भी आते रहे हैं. बिहार में हुए पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस विधायकों को डी के का ही संपर्क दिया गया था वह भी खुद प्रियंका गांधी के जरिए. डीके ने तब कहा था कि उनको हिंदी नही आती तो प्रियंका ने उनके साथ अमेठी के केएल शर्मा को लगा दिया था.
‘दाग अच्छे हैं’

डीके विवादों में भी खूब फंसे और उन्होंने कई मुकदमे भी झेले. साल 2014 में सरकार बनी तो उनका लोकायुक्त में एक बहुमंजिला इमारत का मामला फंस गया. राहुल गांधी को अखबार की कटिंग और कागज भेजे गए तो डीके को एक दिन पहले ही मंत्री बनने से रोक दिया गया और छह महीने से ज्यादा इंतजार के बाद ऊर्जा मंत्री बनाया गया. इस बार भी डीके ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बहुत कोशिश की लेकिन उनके जिद्दी स्वभाव और एकतरफा फैसलों की दुहाई देकर उनको यह पद नहीं दिया गया और कांग्रेस कैंपेन कमिटी का प्रमुख बना दिया गया.

देर से ही सही पर कांग्रेस को समझ में आ गया कि डीके पर कई दाग हैं लेकिन ये दाग अच्छे हैं और कर्नाटक में डीके पर ही भरोसा किया जा सकता है. इनकम टैक्स की रेड डीके को राजनीतिक फायदा दे सकती है.

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